Nalagarh — नाजुक हाथों में बस्ते और पानी की रंग-बिरंगी बोतलें पकड़ने के बजाय बोरे लेकर कूड़े-मलबों के ढेर में दो वक्त की रोटी तलाशते बच्चे हर साल की तरह इस साल भी अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जैसे अवसरों को मंुह चिढ़ाते नजर आ रहे हैं। हालात ये हैं कि जिन हाथों में किताबंे व कलम होनी चाहिए, उनकी किस्मत की लकीर जूठन मांजते-मांजते घिसती जा रही है। उम्र इतनी कि इन्हें काम करता देख आंखें नम हो जाएं। बेशक 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम करवाना कानूनी जुर्म है, लेकिन गरीबी व मजबूरी के चलते उनके विरोधी स्वर दबे हुए हैं। भले ही सरकार बदली हो, कानून बने हों, लेकिन बाल मजदूरों की किस्मत नहीं बदली। सरकारी आंकड़े व दलीलें कुछ भी हों, लेकिन सच यही है कि बीबीएन में प्रवासी बच्चे मजदूरी करने के लिए मजबूर हंै। ऐसा ही नजारा अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस के दिन भी बीबीएन में आम दिखा। इनके छोटी उम्र में ही काम करने की वजहें कुछ भी हों, लेकिन इनके आगे बाल कल्याण की योजनाएं बेमतलब साबित हो रही हंै। औद्योगिक क्षेत्र बीबीएन में ऐसे बच्चों को कूड़े में कबाड़ बीनते, पानी की खाली बोतलें बटोरते, होटलों-ढाबों पर काम करते, धार्मिक स्थानों पर भीख मांगते और चौराहों पर छोटा-मोटा सामान बेचते सरेआम देखा जा सकता है। हर साल आयोजित होने वाले अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के मौके पर बाल मजदूरी खत्म करने के लिए संकल्प लेने में सत्ताधारियों और अन्य मजदूर व सामाजिक संगठनों की ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, लेकिन मजदूरों के प्रति इनका हितैषीपन समारोहों तक सीमित रहता है। समारोहों के बाद व्यवस्था फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती है। Nalagarh, baddi, Brotiwala, manpura,jahrmajri, टोल टैक्स बैरियर के पास बच्चों को कूड़ा और उसमें कबाड़ बटोर हुए आसानी से देखा जा सकता है। ऐसे ही एक प्रवासी बच्चे सागरिया ने बताया कि उसके पिता भी कबाड़ इकट्ठा करने का काम करते है। केवल उनकी कमाई से घर का खर्चा पूरा नहीं हो पाता, इसलिए उसे यहां पोलिथीन, प्लास्टिक, पानी की बोतलें, लोहा और अन्य सामान बीनने भेज दिया जाता है, जिन्हें बेचकर वह 60 से 80 रुपए कमा लेते हैं। nalagarh-baddi मार्ग पर एक समूह में कूड़ा बीनते प्रवासियों को आसानी से देखा जा सकता है। इन बच्चों से जब मजदूर दिवस के बारे में पूछा गया, तो वह हैरत भरी नजरों से इस मुश्किल सवाल का जवाब तलाशते नजर आए। इन बच्चों को स्कूल जाते बच्चे अच्छे लगते हैं, लेकिन घर की मजबूरियां इन्हें स्कूल की दहलीज लांघने की इजाजत नहीं देतीं। यह नजारा या वाकया अकेले बीबीएन क्षेत्र का ही नहीं है, अमूमन हर जगह भारत का भविष्य कहे जाने वाले बच्चे अपनी जिंदगी की उम्मीद तलाशते नजर आते हैं। समाजसेवी नुराता राम ठाकुर का कहना है कि मजदूर दिवस एक औपचारिकता बनकर रह गया है। सरकार ने हालांकि कानून बनाकर चाय और मिठाई की दुकानों, होटलों और घरों में बच्चों से काम लिए जाने को गैर कानूनी घोषित कर रखा है। इसका उल्लंघन करने वालों को बाल श्रम अधिनियम कानून 1986 के तहत दंडित करने का भी प्रावधान किया गया है। पर्यावरण संरक्षण संस्था के महासचिव बीके शर्मा का कहना है कि मजदूर सामाजिक व सरकारी संगठन मजदूर दिवस पर रैलियां, जुलूस निकालकर बाल मजदूरी की निंदा करते हंै, लेकिन आज तक शायद ही किसी को इस अधिनियम के तहत सजा हुई हो। उधर, इस बाबत श्रम अधिकारी baddi प्रताप सिंह वर्मा का कहना है कि बाल मजदूरी का कोई मामला उनके ध्यान में नहीं है। अगर कोई ऐसी शिकायत आती है, तो जरूर नियमानुसार कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने कहा कि बीते वर्ष विभाग ने विशेष मुहिम चलाकर कई ढाबा मालिकों पर शिकंजा कसा था।
May 2nd, 2011
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